पुस्तक समीक्षा : ✍ विजय विनीत

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भ्रम है कि जाति रूढ़ है। यह नहीं बदलती। मगर नंगा सच यह है कि चुनौतियों के सामने जातियां बदल जाया करती हैं। जातियां टूटती भी हैं और बिखरती भी हैं। बनती और बिगड़ती भी हैं। जातियों का यही डायनेमिक चरित्र तमाम जातियों को जिंदा रखे हुए है। कुछ लोग जाति व्यवस्था को खतरनाक मानते हैं और जाति विहीन समाज के पक्ष में सहमति जताते हैं। जातिवाद की लुकाठी भांजने वाले भी कम नहीं हैं, लेकिन दोनों स्थितियों में बने रहने के अपने फायदे हैं। दरअसल जातियों का अपना एक अलग जायका है, मिजाज है जो अपने अंदर गजब का अंतरविरोध व्यक्त करता है।

इन विचारों को सशक्त और प्रामाणिक ढंग से पेश करती पुस्तक “अंग्रेजी राज में कुशवाहा खेतिहर” उस जाति व्यवस्था को समझने की समझ पैदा करती है जो सिर्फ जाति नहीं, संस्कार है।“ तमाम अंतरविरोधों के बावजूद अजय कुमार ने कुशवाहा, मौर्य, कोइरी, शाक्य, काछी, मुराव, माली, सैनी आदि खेतिहरों को जाति नहीं, एक संस्कार के रूप में प्रतिपादित किया है। बताया है कि कुशवाहा असाधारण और काफी शक्तिशाली संस्था है, जिन्हें ब्रितानी हुकूमत बहुत अधिक महत्व देती थी।

महानता और वैभव का प्रतीक था मौर्य शासन

पुस्तक के लेखक अजय कुमार डा.भीमराव अंबेडकर के हवाले से कहते हैं कि भारतीय इतिहास में मौर्य साम्राज्य एक मात्र ऐसा कालखंड था, जिसे स्वतंत्रता, महानता और वैभव का प्रतीक कहा जा सकता है। दूसरे सभी कालखंड को पराभव और अंधकार से गुजरना पड़ा। सिर्फ मौर्य कालखंड ऐसा कालखंड था, जिसमें चतुवण्य पूरी तरह से निर्मूल हो गया था। इस राज्य में शूद्र-जन भी आत्मनिर्भर हो गए थे और देश के शासक बन गए थे।

“अंग्रेजी राज में कुशवाहा खेतिहर” के लेखक ने जाति और धर्मांतरण की प्रवृत्ति को बेबाकी से उकेरा है। साथ ही यह भी बताया है कि जातियां किस तरह से समाज में प्रमोशन पाती हैं। “अंग्रेजी राज में कुशवाहा खेतिहर” गंवईं जीवनशैली को प्रामाणिकता के साथ पेश करने वाली देश की पहली ऐसी किताब है जिसमें जाति व्यवस्था को लेकर लिखी गई 69 पुस्तकों का सार है।

लेखक अजय कुमार ने देश में साल 1891 और 19921 में हुई जातीय गणना के आधार पर कुशवाहा खेतिहर समाज का जो ब्योरा रखा है वो किसी को भी अचरज में डाल सकता है। यह आंकड़ा बताता है कि खेतिहर कुशवाहा जातियां देश भर में फैली हुई हैं, जो सियासी निजाम बदलने का बूता रखती हैं। यह जाति सियासत करने के बजाए खेतों में काम करती है, इसलिए वो शांत, धीर-गंभीर और आमतौर पर विवादों से दूर रहती आई है।

कोइरी के देवता थे महात्मा बुद्ध

लेखक ने साफगोई के साथ बताया है कि चतुर और चालबाज लोग कुशवाहा-कोइरी के देवताओं उपहास उड़ाया करते हैं। कुटिल लोगों ने इनके बारे में कहावत गढ़ी है-काहो, काहे कोइरी के देवता अइसन बइठल बाड़ा…। यह कहावत विश्मय का बोध कराती है और बताती है कि कोइरी के देवता एक तरह की आलंकारिक अभिव्यक्ति हैं। कोइरी के देवता बुड़बक और निठल्लेपन के परिचायक नहीं। इनमें उपमेय के प्रति जिज्ञासा पैदा होती है। लेखक आगे बताते हैं कि आखिर वो कौन देवता है, जो मौन धारण किए चुपचाप बैठे रहते हैं। शायद इस देवता से कोइरियों से बेहद लगाव रहा होगा, तभी “कोइरी के देवता” कहावतों में जगह पा गए। कोइरी के देवता के रूप में बुद्ध व्याप्त हैं, जो शांति और करुणा की मुद्रा में बैठे मिलते हैं। बिना किसी हलचल के गौतम बुद्ध अकेले दिखते हैं। यही स्वभाव उनकी पहचान है। कोई उनसे आंख मिलाने की हिम्मत नहीं दिखाता। जिसने बुद्ध से आंख मिला लिया वो कभी नहीं भटका। यह हिम्मत सिर्फ कुशवाहा और कोइरियों में रही है। कोइरियों के देवता बुद्ध का जीवन दर्शन आडंबरों से लबालब नहीं, अलबत्ता वैज्ञानिक है।

सूर्यवंशी राजा कुश के वंशज थे कुशवाहा

प्रमाणिक दस्तावेजों के आधार पर लेखक अजय कुमार बताते हैं कि कुशवाहा या कछवाहा अयोध्या के सूर्यवंशी राजा भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज थे। महात्मा बुद्ध, चंद्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक कुशवाहा इसी वंश से जुड़े राजा थे। “अंग्रेजी राज में कुशवाहा खेतिहर” के लेखक अजय कुमार बताते हैं कि वर्ण व्यवस्था सिर्फ नफा-नुकसान के लिए गढ़ी गई। अंग्रेज मानते थे कि जाति व्यवस्था ब्राह्मणों के दिमाग की उपज थी। इसके पीछे थी अहंकार और गैर-समानता की राक्षसी और स्वार्थी सोच। ब्राह्मण चाहते तो जातियों और उप-जातियों को बनने का रास्ता रोक सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि वह इस विनाशकारी और अंतहीन सिलसिला को खुशी व संतुष्टि के साथ देखते थे। लेखक ने डोला प्रथा को विस्तार से रेखांकित किया है। बताया है कि ऊंची जातियों के लोग किस तरह से प्रथा के बहाने गरीबों की बहू-बेटियों की इज्जत पर डाका डालते थे।

भारतीय इतिहासकारों ने किया छल

अजय कुमार बताते हैं कि आजादी के आंदोलन में कुशवाहा खेतिहर सबसे आगे थे, लेकिन इतिहासकारों ने इन्हें अपनी पुस्तकों में जगह नहीं दी। चौरी-चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जिन 172 लोगों को फांसी पर लटकाया गया, उनमें अधिसंख्य पिछड़े और दलित खेतिहर थे। आजादी के आंदोलन को धार देने के लिए सबसे पहले किसान-मजदूर ही सड़क पर उतरे। इनकी व्यापक भागीदारी पर राष्ट्रीय नेताओं ने चुप्पी साध ली। लेखक कहते हैं कि ग्रामीण खेतिहरों को गांधी जी में संत-महात्मा की छवि दिखती थी, लेकिन वो जमींदारी प्रथा और वर्ण व्यवस्था के मजबूत समर्थक राजनीतिक संत बनकर प्रकट हुए। खेतिहरों का भला तब हुआ जब किसानों ने चौधरी चरण सिंह को अपना कुल देवता माना। जमींदारी प्रथा टूटने के सालों बाद खेतिहर किसानों में सही मायने में आजादी और नई चेतना का संचार हुआ।

बीएचयू से पत्रकारिता और जनसंचार की डिग्री लेने वाले अजय कुमार पटना दूरदर्शन में सहायक निदेशक (दूरसंचार) के पद पर कार्यरत हैं। वह बिहार के सिवान जिले के जुड़कन गांव के निवासी हैं। इनकी दो अन्य पुस्तकें डिजिटल इंडिया और एक विद्रोही शूद्रः ललई सिंह यादव, काफी लोकप्रिय हुई हैं। अगर आप कुशवाहा खेतिहर नहीं भी हैं तब भी यह पुस्तक आपके लिए काफी उपयोगी और ज्ञानवर्धक है। लेखक ने जातीय संस्था का अध्ययन बेहद गहराई से किया है। इस पुस्तक का मंत्र सिर्फ इतना है कि “जातियों को तोड़ो”। जातियां ही शोषित समाज को निर्जीव, लाचार और मानसिक विकलांग बनाती हैं। “अंग्रेजी राज में कुशवाहा खेतिहर” सिर्फ एक किताब भर नहीं, बल्कि तथ्यों, स्मृतियों और जनश्रुतियों के आधार लिखा गया एक बेहतरीन दस्तावेज है। इसे शोधार्थियों के लिए संदर्भ ग्रंथ कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। इस महत्वपूर्ण कृति के लिए मैं लेखक को ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएं देता हूं।

@ विशेषः 206 पेज की पुस्तक का मूल्य सिर्फ 125 रुपये है। इसे पटना के खजांची रोड स्थित अलका प्रकाशन (मो.8340705747) से प्राप्त किया जा सकता है।

पुस्तक के समीक्षक देश के जाने माने पत्रकार और साहित्यकार हैं ।

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