धारावाहिक

मैं आंखे खोलते हुए ऐसे अलसाये तरीके से उठा जैसे मैं गहरी नींद में था। और उसने मेरी नींद में खलल डाल दिया हो। 
उसपर नजरें गयीं तो भौचक सा हो गया। उसने दुपट्टे से चेहरा कवर किया था। बस उसकी कजरारी ऑंखे ही उन्मुक्त थी। आंखे भी ऐसी की जुबां की जरूरत ही न हो, मने बोलती ऑंखे।नीले दुपट्टे से ढके चेहरे पर आंखे ऐसी लग रही थीं जैसे किसी ने झील को छोड़कर बाकी इलाके पर आसमान का पहरा हो। औऱ गुलाबी फूल आस्तीन की सलवार सूट में कमाल की आकर्षक लग रही थी।
आपको कोई दिक्कत तो नहीं हुई…?उसने मुझे अपनी तरफ एकटक देखते होने पर कहा, एक्चुअली मैं सबसे रिक्वेस्ट करते करते थक गई थी। इसलिए आपके इजाजत का इंतजार नही किया। और बैठ गयी। मुझे लगा कि आप मना नहीं करेंगे।
मैं उसकी इस बात पर जबर्दस्ती हल्के से मुस्कुराते हुए सीट से पैर सिकोड़ने लगा। क्योंकि वह मेरे पैरों से बिल्कुल सट कर बैठ गई थी। उसके कूल्हे से मेरा पैर फेविकोल हुआ जा रहा था। यह मेरे लिए अप्रत्याशित और शरीर में चीटियाँ रेंगने जैसा अनुभव था। मगर मैं इस अनुभव से विरक्ति चाहता था। क्योंकि मेरे जेहन में यह भर गया था कि लड़कियां पढ़ाई से भटका देती हैं। 
पैर फैलाये रहिये…वरना आप कहेंगे कि आते ही मेरे सीट पर पूरी तरह से कब्जा कर ली…और इतना कहकर वह जोर से खिलखिला कर हंस दी। 
इतना तेज की सहयात्री चौंक कर देखने लगें। और मैं झेंप गया।
साबs कैसी रही चाय..? दूसरे डिब्बे से चाय वाला लौटते हुए पूछा। मैंने जेब से एक रुपये का सिक्का उसे देते हुए कहा। मस्त… सच में तबियत मस्त हो गयी।
अरे साबs अपनी मैडम जी को भी पिला दो न चाय। लगता था जब मैं आया था तो मैडम टॉईलेट गयीं थीं। 
चाय वाले के इतना बोलते ही। उस लड़की की आंखे मुस्कुराने के अंदाज में सिकुड़ गयीं।
मैंने कहा…नहीं नहीं भाई, यह मेरी मैडम नहीं हैं। यह भी हमारी तरह सफ़र कर रही हैं।
चाय पियेंगी…मैंने औपचारिकता निभाते हुए बेमन से पूछ लिया।
नहीं अभी थोड़ी देर पहले पिया था। 
यह सुनकर चाय वाला मुस्कुराते हुए चला गया। 
उसके जाते ही वह बोली,मैं खुद अपना चाय पानी थर्मस में लेकर चली हूँ। अगर पीने का मन हो तो बताना…आपने मुझे सीट दी है। इतना तो फ़र्ज़ बनता है।
मैं शुक्रिया कहकर उसके कूल्हे औऱ बोगी के दीवाल के बीच फंसे पैर को आहिस्ता आहिस्ता फिर सिकोड़ने लगा। वह बोली कि आपको दिक्कत न हो तो मैं भी सीट पर पैर फैला लूं। जब तक मैं कुछ बोलता। और वह दूसरी तरफ पैर फैला ली। अब मेरा पैर उसकी तरफ और उसका पैर मेरी तरफ हो गया।  ठीक वैसे ही जैसे चार बिजली के तार आपस में टच होते हुए एक छोर से दूसरी छोर की तरफ जा रहे हों।मैं असहज तो हो रहा था…मगर क्या करता। 
यार क्या बतायें टिकट कन्फर्म न होने से यह दिक्कत हुई। परसों स्कूल में रिपोर्ट करना नहीं होता तो ऐसे कभी नहीं जाती।
यार..?? जी एक अज़नबी सहयात्री को यार कहने में हिचक नहीं हो रही आपको…? मैंने सवाल किया।
आप तो ऐसे बोल रहे हो कि जैसे यार माने हसबैंड होता है…अरे यार मने दोस्त और क्या…? आप हमउम्र हो तो क्या आपको अंकल जी कहूँ। यह कहकर वह हंस दी। वैसे आपका नाम क्या है…कहाँ के रहने वाले हो आप..? दिल्ली कोई जॉब के सिलसिले में जा रहे हो.?एकसाथ कई प्रश्न उसने कर दिया।
जी अजय नाम है मेरा। बनारस का रहने वाला हूँ, दिल्ली पढ़ाई के लिए जा रहा हूँ।
वैसे आपने मेरे बारे में सब पूछ लिया जान लिया मगर। आप खुद नकाबपोश बनी हो। 
ओह, अच्छा असल में रास्ते में आते वक्त इतना धूल उड़ रहा था इसलिए चेहरा ढंक लिया था। खोलने का ध्यान ही नहीं रहा।
 वह दुपट्टा खोलते हुए बोली। वैसे मैं कानपुर की हूँ, नाम है फरजाना। जा रही हूं इंडिया गेट, कुतुबमीनार देखने। फिर ठठा कर हंस दी। 
चेहरा खुलते ही लगा जैसे दूध के कटोरे में किसी ने सिंदूर मिला दिया हो। कमान की तरह तनी भौहें, सुर्ख गुलाबी होठ और चांद की तरह दमकता गोल चेहरा। देखकर लगा कि स्वर्ग से अप्सरा की एक खेप धरती पर छूट गयी थी। उसमें से यह एक है।
वह मुस्कुराते हुए। अजय आपका असली नाम है…?
तब क्या मैं नकली नामों की फैक्ट्री खोल रखा हूँ। मैंने भी मुस्कुरा के जवाब दिया।
मगर मैं तो झूठ बोली मेरा नाम फरजाना नहीं, प्रतिमा है। हूँ तो कानपुर की ही मगर इंडिया गेट या कुतुबमीनार देखने नहीं मैं यूनिवर्सिटी में पढ़ने जा रही हूं।
जब तक आगे कुछ बात होती पांच की संख्या में आवारा टॉइप के लड़कों का एक झुंड आगे बढ़ते बढ़ते मेरे सीट के पास ठिठक गया ।
क्रमशः—

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