* संदेशों को एक मकतूल से दूसरे मकतूल पहुचाते थे घुड़सवार पत्रवाहक
* मकतूल की छतों पर नगाड़े बजा कर देते थे खतरों की सूचना
* मुगल सम्राट शेरशाह सूरी ने कराया था निर्माण
— सत्य प्रकाश सत्या
चकिया ब्लॉक के शेमरा मौजा के सिवान मे खडे मिनार नुमा अवशेष को देखकर अक्सर ही आगन्तुकों की नजरे और कदम ठहर जाते हैं । लोग इस अवशेष को लेकर तरह तरह की चर्चाएं भी करते हैं । कोई इसे स्तूप समझता है तो कोई मिनार । वैसे आसपास के ग्रामीण इसे मकतूल नाम से पुकारते हैं ।
इसकी वास्तविकता जान कर आपको हैरानी होगी कि मिनार की भाति ऊचाई रखा वास्तु का यह उत्कृष्ट नमूना न तो कोई मिनार है ना ही कोई स्तूप । बल्कि यह स्थापत्य कला का शानदार अवशेष ऐतिहासिक काल मे मुगलकालीन डाक सेवा के लिए प्रयोग किया जाने वाला डाक भवन होता था । ऐतिहासिक काल में सूचनाओं के आदान-प्रदान के माध्यम आज की तरह आम नहीं थे । राजा संदेशों को लिखने के लिए अपने महलों में बकायदा एक पत्र लेखक की नियुक्ति करते थे और पत्र को दूसरे राज्य में ले जाने के लिए पत्रवाहक हुआ करता था । इतना ही नहीं कबूतरों और बाज के माध्यम से भी चिट्ठियों के आदान-प्रदान की कथाएं हम ऐतिहासिक कहानियों के माध्यम से सुनते हैं । लेकिन मुगल शासकों के काल में बनाई गई संदेश भेजने की यह प्रक्रिया भी कम दिलचस्प नहीं है । मुगल काल मे इस क्षेत्र में घोड़ों का टाप जहां राज संदेश का प्रतीक होता था वहीं नगाड़ों की थाप और तुतुही की कर्कश आवाज हड्डीयों मे डर की सिहरन पैदा कर देती थी । घोडो की टाप और नगाड़ों की थाप का इन मिनार नुमा डाक भवनों से गहरा ताल्लुक था ।
आसपास गाँव के पुरनियों के मुताबिक इन डाक भवनों को “मकतूल” नाम से जाना जाता है । इसका निर्माण मुगल शासक शेरशाह सूरी ने कराया था । ऐसे मकतूल प्रत्येक दश किलोमीटर के अन्तर पर निर्मित कराए गए थे । देवतापुर गांव के बुजुर्ग महेन्द्र नारायण दूबे बताते हैं कि दूसरे राज्य के राजाओं को सन्देश भेजने के लिए अपने डाक सेवक के माध्यम से राजा राज्य के समीपवर्ती मकतूल तक अपना संदेश भेज देता था । डाक सेवक राज्य से मकतूल तक घोड़े से पहुंचकर संदेश को डाक प्रभारी को दे देते थे, वहां से दूसरा डाक सेवक संदेश को लेकर अपने समीपवर्ती मकतूल तक जाता था और संदेश को आगे भेजने के लिए दूसरे मकतूल में डाक प्रभारी को सौंप देता था । दस-दस किलोमीटर के अंतराल पर बने मक़तूलो में डाक सेवक नियुक्त रहते थे ।बुजुर्गवार बताते हैं कि संदेश सेवाओं के अलावा राज्य पर जब किसी तरह का खतरा मंडराता था तो मक़तूल में नियुक्त कर्मचारी मकतूल की छतों पर चढ़कर तुतुही और नगाड़े से तेज आवाज उत्पन्न कर दूसरे मकतूल को खतरे की सूचना देते थे । इस तरह से यह सूचनाएं राज्य के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच जाती थी । जिससे राजमहल के सैनिक खतरों का सामना करने के लिए तैयार हो जाते थे । कमती गांव निवासी महानन्द पाठक ने बताया कि कुछ दशक पहले तक मक़तूल 6 तल का था धीरे धीरे मकतूल का दो तल क्षतिग्रस्त होकर गिर गया जबकि 4 तुल अभी भी सुरक्षित है मकतूल के अंदर ऊपर तक जाने के लिए लोहे की सीढ़ियां और साखू की लकड़ी के करी लगे हुए थे हर तल पर करी के सहारे पत्थर की पटिया बिछाकर छत बनाया गया था । समय बीतने के साथ ही जहां मकतूल की लोहे की सीढ़ियां चोर काट ले गए वही मकतूल के साखू की करी , पटिया भी लोग निकाल कर अपने अपने घरों में प्रयोग कर लिए ।
सुरेंद्र नारायण दुबे बताते हैं कि मुगल शासक शेरशाह सूरी ने ऐसे मकतूल कोलकाता से पेशावर तक बनवाए थे । अपने आसपास मकतूलो के अवशेष परमंदापुर, भुइली, धरदे आदि गांव में आज भी क्षतिग्रस्त अवशेषों के रूप में दर्शनीय है । गांव के शिवानंद पाठक, अशोक दुबे ,सदानंद पांडे, विशाल पाठक, आदित्य पाठक ने कहा कि सरकार अगर इन अवशेषों को पुरातत्व अवलोकन के लिए संरक्षित करती है तो यह गांव एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित होगा । जिससे आसपास के ग्रामीणों को रोजगार के अवसर मुहैया होंगे ।