चंदौली । कोल्हू शब्द सुनते ही हमारे जेहन में “कोल्हू का बैल” नाम की एक कहावत आ जाती है । इस कहावत और बैल को तो कमोबेश सभी जानते होगे लेकिन कोल्हू क्या है ये बहुत से लोगों को नहीं पता होगा । हमारी नयी पिढीयाँ कोल्हू के बारे मे बिल्कुल नहीं जानती , कम से कम अंग्रेजी शिक्षाओं मे मशगुल हमारे नौनिहालों की पिढी तो इससे एकदम अछूती है ।
गाँव देहात मे आज भी नक्काशीदार डमरूनुमा आकार के पत्थर की बनी कोल्हू औचित्यहीन खेत खलिहानों मे खडी मिल जाती हैं । कुछ बरस पहले तक ये कोल्हू आज की तरह उपेक्षित नहीं थे बल्कि ग्रामीणों की आजीविका के एक प्रबल साधन होते थे । कोल्हू की सहायता से ग्रामीण गन्ने को पेर कर उस का रस निकालते थे, जिससे खांड गुड आदि बनाए जाते थे । कोल्हू को चलाने के लिए बैलों की सहायता से इसे घुमाया जाता था । कृषि कार्यों में वैज्ञानिक उपकरणों के प्रयोग के कारण कोल्हू का स्थान भी मशीनों ने ले लिया । अब न गांव में बैल दिखाई पड़ते हैं न क्रियाशील कोल्हू ।
आपको जानकर हैरानी होगी कि ग्रामीणों के लिए कोल्हू केवल कृषि कार्य का साधन मात्र नहीं था बल्कि गांव के नौजवानों की मर्दानगी का सुबूत भी हुआ करता था । आज भी गांव में थके युवकों को देखकर बड़े बुजुर्गो के मुंह से “कोल्हू टार के आवत हऊवा का बचवा ” निकल जाता है । इस कहावत के पीछे जो कहानी है वह भी काफी दिलचस्प है । वर्षों पहले साधनों का अभाव होने के कारण कोल्हू गढे़ जाने के स्थान से गांव तक, भारी होने के कारण पहुंचाना आसान नहीं था । इस लिए कोल्हू पर उसके मालिक का नाम और गांव खोद कर लिख दिए जाते थे और उसे गांव की दिशा मे नजदीकी गांव की सीमा तक धकेल कर पहुचा दिया जाता था । कोल्हू को अपने गांव की सीमा पर देखकर अपने गांव से दूसरे गांव की सीमा तक ढकेलकर पहुंचाने की जिम्मेदारी गांव के नौजवानों की होती थी । जिस गांव की सीमा पर पहुंचकर कोल्हू रूक जाता था , उस गाँव के लिए कहा जाता था कि इस गाँव में कोई मर्द नहीं है । इतना ही नहीं उस गांव में दूसरे गांव वाले अपनी लड़की नहीं ब्याहते थे । गांव के नौजवानों के बल और पुरुषत्व का परिचायक कोल्हू आज पूरी तरह उपेक्षित खेतों खलिहानों मे धूल फाक रहा है ।
आज गांव के अनेक ऐसे साधन विलुप्ति के कगार पर हैं जिसे संरक्षित करने की आवश्यकता है , नहीं तो हमारी आने वाली पीढियां इन गवई संस्कृति के महत्वपूर्ण स्तम्भों से कभी भी परिचित नहीं हो पाएंगी ।